कमाने की तड़प में खाना भूल गए?


खाने की तड़प से ही तुमने कमाना सीखा … 
….. और कमाने की तड़प में खाना भूल गए   – प्रकाश ‘पंकज’

फुलझड़ियों को आग लगाने से क्या होगा आज? बताओ !


भारत बनाम भ्रष्टाचार: छोड़ो गाना शब्द प्रलापी


भारत बनाम भ्रष्टाचार: ‘Thug’ की जननी भारतभूमि


>भारत बनाम भ्रष्टाचार: जनता भींगेगी या बरसेगी?


>कभी न पूरी हो सकने वाली जिद्द


>कैसी है रे होड़ सजन सब पाक चरित सुलगावै?


>

कैसी है रे होड़ सजन सब पाक चरित सुलगावै?
का करी घर मा बैठ कहो निज धरती आग लगावै? – प्रकाश ‘पंकज’ 

ऐ खाकनशीनों उठ बैठो, वह वक्त करीब आ पहुंचा है,
जब तख्त गिराए जाएंगे, जब ताज उछाले जाएंगे।
अब टूट गिरेंगी जंजीरें, अब जिंदानों की खैर नहीं,
जो दरिया झूम के उट्ठे हैं, तिनकों से न टाले जाएंगे।
दरबार-ए-वतन में जब इक दिन सब जाने वाले जाएंगे,
कुछ अपनी सजा को पहुंचेंगे, कुछ अपनी सजा ले जाएंगे।
कटते भी चलो, बढ़ते भी चलो, बाजू भी बहुत हैं,सर भी बहुत,
चलते भी चलो कि अब डेरे, मंजिल पे ही डाले जाएंगे।  – फैज अहमद फैज 

>वाह रे ग्लोबलाईजेशन ! तूने घरवालों को भी बेघर कर दिया


>

वाह रे ग्लोबलाईजेशन !
तूने घरवालों को भी बेघर कर दिया।
सभी खानाबदोश जैसे इधर-उधर भाग रहे हैं;
शायद उन्हें भी पता नहीं, क्यों?

– प्रकाश ‘पंकज’

 * चित्र: गूगल साभार 

>प्रलय पत्रिका: शिव जाग मनुज ललकार रहा


>

झिझक रहे थे कर ये कभी से ‘प्रलय-पत्रिका’ लिखने को,
आज वदन से सहसा निकला – “अब धरती रही न बसने को”।
रोक न शिव तू कंठ हलाहल, विकल रहे सब जलने को,
दसमुख कहो या कहो दुश्शासन, तरस रहे हम तरने को ।।

शिव देख मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा,
अस्तित्व ही तेरा नकार रहा , शिव जाग मनुज ललकार रहा।
तुम क्या संहारक बनते हो? प्रलय मनुज स्वयं ला रहा।
तुम क्या विनाश ला सकते जग में? विनाश मनुज स्वयं ला रहा।
शिव जाग मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा।

चिर-वसुधा की हरियाली को तार-तार जब कर डाला,
निर्मल पावन गंगा को मलित पाप-पंकिल कर डाला,
स्वच्छ, स्वतंत्र प्राण-वायु में विष निरंतर घोल रहा,
है हम सा संहारक कोई? अभिमान मद डोल रहा।
शिव जाग मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा।


सुजला सुफला कहाँ रही अब पावन धरती माता अपनी,
ऐसा कपूत पाया था किसने जो संहारे माता अपनी?
सुर-सरिता-जीवनधरा कैसी? अश्रु-धारा बस बचे हुए हैं,
समीर कहाँ अब शीत-शीत, शुष्क वायु बस तपे हुए हैं।
हे कैलाशी, अब बतलाओ – विनाश को अब क्या बचे हुए हैं?
हम भी तुम सम विनाशकारी, यह मूक भाषा में बोल रहा।
शिव जाग मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा।

एक था भागीरथ जिसने, जग में गंगा का आह्वाहन किया,
उग्र-वेग संचित कर शिव, तुमने धरती को धीर-धार दिया।
निर्मल-पावन सुर-गंगा में जगती के कितने ही पाप धुले,
पर पाप धर्म बन गया जहाँ पर, पाप धोना हो कठिन वहाँ पर।
पाप-पुंज बन गयी है गंगा, शील-भंग अब हुआ है उसका,
गंगाधर, शिखा की शोभा को, मानव कलंकित कर रहा।
शिव जाग मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा।

क्या तू शशिधर है सच में ? तो देख शशि भी है इनके वश में।
यह सुनकर मन कभी हर्षित होता था – “मानव मयंक तक पहुँच चुका है”,
फिर चिर-विषाद सा हुआ है मन में, किसका तांडव हो रहा है जग में ?
धरती की शोभा नाश रहा,  शशी-शोभा-नाश विचार रहा,
भविष्य झाँक और फिर बतला – कैसा तेरा श्रृंगार रहा ?
शिव जाग मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा।

कितने उदहारण दूँ मैं तुझको, लज्जित तू हो जाएगा,

तू क्या संहारक कहलायेगा?
अमरनाथ का लुप्त होता हिमलिंग
सुनी थी मैंने अनगिनत ही कीर्तियाँ ज्योतिर्लिंग अमरनाथ की,
मन में श्रद्धा, भक्ति में निष्ठा, ले करते सब यात्रा अमरनाथ की,
कितने ही लालायित भक्त, उस हिमलिंग का दर्शन करते,
प्रान्त-प्रान्त से आते उपासक, अपना जीवन धन्य करते।
पर हिम शिखा पर बसने वाले, भांग धतुरा रसने वाले,
इस तपती धरती पर अब, तू एक हिम लिंग को तरस रहा।
शिव जाग मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा।
हे पिशाच के गण-नायक, हे रावण-भक्तिफल-दायक,
पिशाचमयी मानव यहाँ सब, मानवमयी रावण यहाँ सब।
अब राम एक भी नहीं धरा पर, क्या होगा अगणित रावण का ?
रावण संहारक लंका का तो मानव संहारक निज-वसुधा का।
तुम सम शक्तिमयी हम भी हैं, सुन देख दशानन हूँकार रहा।
शिव जाग मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा।
कब तक रहोगे ध्यान-लीन, कर रहे तुम्हे सब मान-हीन।
अधर्म-ताप तप रहा है व्योम, पाप-ताप तप रही है धरती,
मानवता मानव से लड़ती, मृत्यु संग आलिंगन करती।
अब शक्ति-पट खोल हे शिव, त्राण को तरस रहे सब जीव,
यह पाप-पंकज धिक्कार रहा – “अरे कैसा तू दिगपाल रहा?”
शिव जाग मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा।
नटराजन नृत्य करो ऐसा की नवयुग का फिर नव-सृजन हो,
पाप-मुक्त होवे यह जगती, धरती फिर से निर्जन हो,
दसो दिशायें शान्त हो, पुनः वही जन-एकांत हो,
संसकृतियां फिर से बसें, न कोई भय-आक्रांत हो,
और शक्ति तुम्हे अब शिव की शपथ- “फिर शक्ति दुरुपयोग न हो”।  – प्रकाश ‘पंकज’

* कर: हाथ

* वदन: मुख

* चित्र: गूगल साभार

सम्मान पाने के लिए सम्मान देना सीखें


यदि आप खुद को मुझसे छोटा समझते हैं,
मैं आपसे बहुत छोटा हूँ
यदि आप मुझसे बड़े होने का दम्भ भरते हैं,
तो मैं आपसे भी बड़ा हूँ।  – प्रकाश ‘पंकज’

अंगद सा हमने पद रोपा


ले नाम सियावर रामचन्द्र,
अंगद सा हमने पद रोपा।
है पूत कहीं ऐसा जग में
जो पाँव हमारे डिगा सके?  
 –प्रकाश ‘पंकज’

सन्दर्भ: अंगद की आस्था और विश्वास
http://www.youtube.com/v/V2wzo8jBRok?fs=1&hl=en_US&color1=0xe1600f&color2=0xfebd01

वो क्या थी नभ की छत – प्रकाश ‘पंकज’


वो क्या क्षुधा का स्वाद था?

वो क्या थी नभ की छत?

"बाल मजदूरी कानून".. किसका अभिशाप? किसका वरदान?


“बाल-मजदूरी कानून”.. किसका अभिशाप? किसका वरदान?
गजब के घटिया कानून है देश के:
एक समृद्ध परिवार का बच्चा जिसकी परवरिश बड़े अच्छे ढंग से हो रही है, अपने स्कूल और पढाई छोड़ कर टी.वी. सीरियल या फिल्म में काम करता है सिर्फ और सिर्फ अपनी और अपने परिवार की तथाकथित ख्याति के लिए तो यह “बाल-मजदूरी” नहीं होती। वेश्यावृति करने वाली मीडिया भी इसे प्रोत्साहित करती है।
वहीँ अगर कोई बच्चा अपने और अपने परिवार वालों का पेट पालने के लिए प्लेट धो लेता है तो यह “बाल-मजदूरी” हो जाती है और वहीँ यह दोगली मीडिया उस बात को उछाल-उछाल कर कान पका देती है।
.. हमारे यहाँ ऐसे लोगों की भी कमी बिल्कुल नहीं है  जो कहेंगे कि वे टी.वी. शो वाले प्रतिभा को प्रोत्साहित कर रहे हैं। ऐसे लोगों को मेरा एक ही जबाब है अगर आपके बच्चों का टी.वी. शो में नाचना गाना प्रतिभा हो सकती है तो हरेक शाम अपनी और अपने घरवालों की रोटी जुगारने की कोशिश में उन बच्चों की प्रतिभा कहीं से भी कम नहीं है, बल्कि ज्यादा ही है। और,  अगर आप उनके सामाजिक विकास और शैक्षणिक विकास की बात करें तो दोनों जगहों पर एक हीं बात सामने आती है कि वे सभी अनिवार्य शिक्षा से दूर हो रहे हैं। जुलाहे का बच्चा तो सुविधा नहीं मिलने के कारण शिक्षा में पिछड़ रहा है पर आपका बच्चा तो सुविधाओं के बावजूद उस धारा में बह रहा है जो शैक्षणिक विकास से बिलकुल अलग है। अगर ऐसा ही रहा तो आने वाली पीढ़ी एक “कबाड़ पीढ़ी” पैदा होगी।
यहाँ मै कानून को लाचार ही नहीं उन लोगों का नौकर भी समझूंगा जिनके पास पैसा है, शक्ति है, वर्चस्व है। यही लोग कानून को कुछ इस तरह से बनाते है कि जिनके पास ऐसी समृद्धि है वो इससे निकल सकते हैं और जिनके पास नहीं है वो पिसे जाते हैं इन कानूनी दैत्य-दन्तों द्वारा।

अगर कोई होटल-ढाबे वाला किसी को जीविका देने के लिए “बाल-मजदूरी” करवाने का दोषी हो सकता है तो आज हम सारे लोग जो बड़े मजे से टी.वी. के सामने ठहाके मारते हैं, वाह-वाह करते है, मेरी नज़र में वो सब दोषी हैं “बाल-मजदूरी” करवाने के।

… कानून माने या न माने।
… आप माने या न मानें।
… और मुझे यह भी मालूम है कि अकेले सिर्फ मेरे मानने से भी कुछ नहीं होने को है।
और अंत में इतना हीं कहूँगा कि यदि आपमें अब भी समाज के प्रति थोड़ी नैतिक जिम्मेदारी बची हो तो इसपर विचारें और ऐसे टी.वी. सीरियलों, फिल्मों का “प्रतिकार” करें, सामाजिक बहिष्कार करें, उनका सहभागी न बनें, किन्नरों जैसे तालियाँ न पीटें।

चलता हूँ और आपके लिए कुछ लिंक छोड़ जाता हूँ। धन्यवाद!

‘पंकज-पत्र’ पर पंकज की कुछ कविताएँ: प्रतिकार


‘पंकज-पत्र’ पर पंकज की कुछ कविताएँ: प्रतिकार

पिछले कुछ दिनों से मेरे मन की स्थिति दयनीय थी। चाह रहा था कुछ लिखना पर लिख नहीं पा रहा था। करुण स्थिति में लिखी गई यह कविता समाज के कुछ ऐसे कुख्यात प्रकार के लोगों को समर्पित है जो की “निम्न” हैं :
अनुच्छेद।।१।। कलमाड़ी, अशोक चव्हाण, ए. राजा और उन जैसे भ्रष्ट लोगों के लिए।
अनुच्छेद।।२।। शिक्षा के नाम पर व्यापार करने वालों के लिए। 
अनुच्छेद।।३।। गिलानी, अरुंधती जैसे अन्य देशद्रोहियों या राष्ट्र-विरोधियों के लिए जो देश की अखंडता पर चोट करते हैं।
कविता का पता (जरूर पढ़ें): ‘पंकज-पत्र’ पर पंकज की कुछ कविताएँ: प्रतिकार

प्रतिकार: राजा सशंकित, प्रजा सशंकित और यह ध्वजा सशंकित,


राजा सशंकित, प्रजा सशंकित और यह ध्वजा सशंकित,
चव्हाण-कलमाड़ी

सोंचता हूँ देश की धरती, तुझे त्याग ही दूँ ।

पर,
तज नहीं सकता जो प्राणों से भी प्यारा हो,
वो जिसने गोद में पाला, जो सर्वस्व हमारा हो।
उनके रक्त की उष्ण धार को फिर से बहा देंगे,
जो इस धरा पर लूट का व्यापार रचते हैं।
वे उस जमीं की लूट का धन ले बटोरे हैं,
जिस जमीं पर जान हम अपनी छिड़कते हैं।।१।।
शिक्षा प्रताड़ित, गुरु प्रताड़ित आज हर विद्या प्रताड़ित,
सोंचता हूँ देश के गुरुकुल, तुझे भूल ही जाऊँ।
पर,
भुला नहीं सकता जो कंठों से गुजरता हो,
जो विद्या हमारी हो, जो गांडीव हमारा हो।
उन सब दलालों को हम चुन-चुन निकालेंगे,
जो शिक्षा के नाम का व्यापार रचते हैं।
वे उस शिक्षा के लूट का धन ले बटोरे हैं,
जिस शिक्षा के लिए हम अपने घर-बार खरचते हैं।।२।।
संस्कृति  विसर्जित, भाषा विसर्जित, राष्ट्र का हर गौरव विसर्जित,
गिलानी-अरुंधती

चाहता हूँ देश की माटी, तुझे खोखला कह दूँ।

पर,
गर्व न कैसे करूँ? गौरव इतिहास जिसका हो,
जनक जो सभ्यता का हो, गुरु जो सारे जहां का हो।
हम राष्ट्र द्रोही कंटकों का समूल नाश कर देंगें,
जो इस धरा का नमक खा, दुश्मन की गाते है।
वे उस धरा को तोड़ने का उद्योग करते हैं,
जिस धरा के सृजन में हम तन-मन लुटाते हैं।।३।।   – प्रकाश ‘पंकज’
गिलानी : एक कश्मीरी अलगाववादी जिसने दिल्ली में आकर अलगाववाद को भड़काया
पिछले  कुछ दिनों से मेरे मन की स्थिति दयनीय थी। चाह रहा था कुछ लिखना पर लिख नहीं पा रहा था। अचानक कल रात फूट परे ये शब्द। करुण स्थिति में लिखी गई यह कविता समाज के कुछ ऐसे कुख्यात प्रकार के लोगों को समर्पित है जो की “निम्न” हैं :
अनुच्छेद।।१।। कलमाड़ी, ए. राजा और उन जैसे भ्रष्ट लोगों के लिए।
अनुच्छेद।।२।। शिक्षा के नाम पर व्यापार करने वालों के लिए।
अनुच्छेद।।३।। गिलानी, अरुंधती जैसे अन्य देशद्रोहियों या राष्ट्र-विरोधियों के लिए जो देश की अखंडता पर चोट करते हैं।
*चित्र: गूगल साभार

मुझे हर चीज़ में डंडा करने की बुरी आदत है


लोग कहते हैं,
मुझे हर चीज़ में डंडा करने की बुरी आदत है।

मैं सोंचता हूँ,
डंडे से तो कुछ बदला नहीं,
अबकी बाँस उठाकर कोशिश करूँ।


*चित्र: गूगल साभार 

संकल्पों के दीप जलाता कदम बढ़ाता चल


संकल्पों के दीप जलाता कदम बढ़ाता चल,
वक्ष दबे बारूदों से खुद राह बनाता चल।  

– प्रकाश ‘पंकज’

ये बारूद जो सुलग रहे हैं हम जैसों के भीतर, न जाने कब फूटेंगे,
फूटेंगे भी या फिर बस फुसफुसा कर ही रह जाएँगे – ये भी किसे पता?
… कोई बात नहीं,
आज तो कम से कम कुछ कानफोड़ू धमाके कर के बहरों को सुना देने का भ्रम और मजबूत कर लें!
 
शुभ पटाखोत्सव! 😉
शुभ दीपोत्सव!
आपको  और आपके परिवार को प्रकाश-पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ !

ऐसा दिया जलाएँ मन में, जग उजियारा होए!

जीना एक आडम्बर साला मरना भी पाखंड !


जीना एक आडम्बर साला
मरना भी पाखंड !  

 – प्रकाश ‘पंकज’

अनुपयुक्त शब्द प्रयोग के लिए क्षमा पर रोक नहीं पाया।

चित्र: गूगल देव साभार

>जठराग्नि तुम्हें सारे अधिकार देती है।


>

जठराग्नि तुम्हें सारे अधिकार देती है।
भूखे हो? हाथ खाली हैं?
जिनके हाथ भरे हैं उनसे लो, छीनो, खाओ,
कोई पाप न लगेगा।
घबराओ मत, भूख तुम्हें सारे अधिकार देती है ।

जीने का अधिकार सबको है,
प्राकृतिक सम्पत्ति और उनसे जनित सारी सम्पत्तियों पर
सबका बराबर अधिकार है ।
भूखों! उठ्ठो!
खा जाओ समाज में फैली सारी असमानताओं को।
धर्म, नारी-मुक्ति, दलित-मुक्ति के नाम पर
राजनितिक  व्यापार करने वालों,
पहले क्षुधा-मुक्ति दिलाओ,
नहीं तो एक दिन यही भूख तुम्हें निगल जायेगी,
खा जायेगी तुम्हारी सत्ता को।
और डार्विन, एक दिन भगत फिर पैदा होगा 
और तेरे उस “सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट” वाले 
कुरूप सत्य को झुठला कर चला जायेगा।   – प्रकाश ‘पंकज’

फिर भी न जाने कैसे हम निर्लज्जों को राष्ट्र पर गर्व है


हमारे हिन्दुस्तान में

हिन्दी कम जानना या नहीं जानना बड़े गर्व की बात है,

पर अंग्रेजी कम जानना एक शर्म की बात है

और अंग्रेजी नहीं जानना डूब मरने की बात है।

… फिर भी न जाने कैसे हम निर्लज्जों को राष्ट्र पर गर्व है

– प्रकाश ‘पंकज’